जानिए क्या है जमानत कब और किसे मिलेगी और कितने हैं इसके प्रकार

June 11, 2019
एडवोकेट चिकिशा मोहंती द्वारा


विषयसूची

  1. जमानत के अनुसार अपराध दो प्रकार से होते हैं
  2. जमानती अपराध
  3. गैर - जमानती अपराध
  4. भारत में जमानत के प्रकार
  5. भारत में जमानत के लिए आवेदन कैसे करें?
  6. बेल या जमानत मिलने की शर्तें

जब किसी व्यक्ति से कोई अपराध हो जाता है, या फिर किसी रंजिश के चलते उसे किसी झूठे अपराधिक मामले में फंसाया जाता है, जिसके चलते पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है, या गिरफ्तार करने वाली होती है। तो ऐसे में उस शख्स को कानून में जमानत पर जेल से बाहर आने का अधिकार दिया गया है। लेकिन ये बात याद रखनी होगी कि कई मामले ऐसे होते हैं, जिनमें जमानत मिल सकती है, और कई ऐसे भी जिनमें जमानत नहीं मिल सकती। जब कोई इंसान किसी अपराध के कारण जेल जाता है, तो उस शख्स को जेल से छुड़वाने के लिए न्यायालय या पुलिस से जो आदेश दिया जाता है, उस आदेश को जमानत या फिर बेल कहते हैं।

किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को कारागार से छुड़ाने के लिये गारंटी के तौर पर न्यायालय के समक्ष जो सम्पत्ति जमा की जाती है, या जमा करने की प्रतिज्ञा की जाती है, उसे जमानत की राशि कहते हैं। जमानत होने के बाद न्यायालय को यह विश्वास हो जाता है, कि आरोपी व्यक्ति सुनवाई के लिये बुलाये जाने पर अवश्य आयेगा, अन्यथा उसकी जमानत की संपत्ति जब्त कर ली जायेगी (और सुनवाई के लिये न आने पर पुलिस द्वारा फिर से पकड़ा जा सकता है)। ज़मानत पर रिहा होना का मतलब है, कि आपकी स्वतंत्रता की कुछ सीमाएं हैं, आप को देश छोड़ने से एवं बिना आज्ञा यात्रा करने बाधित किया जा सकता है, और जब भी आवश्यक हो आप को न्यायालय अथवा पुलिस के समक्ष उपस्थित होना होता है I
 


जमानत के अनुसार अपराध दो प्रकार से होते हैं

  1. जमानती अपराध

  2. गैर - जमानती अपराध
     


जमानती अपराध

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 के अनुसार ज़मानती अपराध का अर्थ किसी ऐसे अपराध से है जो-

  1. प्रथम अनुसूची में ज़मानती अपराध के रूप में दिया गया हो , या

  2. उस समय की स्तिथि के अनुसार किसी कानून द्वारा ज़मानती अपराध बनाया गया हो , या

  3. गैर - ज़मानती अपराध से भिन्न अन्य कोई अपराध हो।

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की प्रथम अनुसूची में जमानती अपराधों का उल्लेख किया गया है। जिन अपराधों को जमानती बताया गया है, उसमें अभियुक्त की ज़मानत स्वीकार करना पुलिस अधिकारी एवं न्यायालय का कर्त्तव्य है। उदाहरण के लिये, जमानती अपराध में मारपीट, धमकी, लापरवाही से गाड़ी चलाना, लापरवाही से मौत, किसी व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक साधारण चोट पहुँचाना, उसे सदोष रूप से अवरोधित अथवा परिरोधित करना, मानहानि करना जैसे मामले आते हैं। इस तरह के जमानती अपराधों के मामले में से कुछ मामलों में तो थाने से भी जमानत दिए जाने का प्रावधान होता है। आरोपी थाने में बेल बॉन्ड भरता है, और फिर उसे जमानत दी जाती है। जमानती अपराधों में न्यायालय को जमानत देनी ही होती है।
 


गैर - जमानती अपराध

गैर जमानती अपराधों में लूट, डकैती, हत्या, हत्या की कोशिश, गैर इरादतन हत्या, रेप, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आदि अपराध शामिल हैं। गैर-जमानती अपराध होने पर मामला मैजिस्ट्रेट के सामने जाता है। अगर मैजिस्ट्रेट को लगता है, कि मामले में फांसी या उम्रकैद तक की सजा हो सकती है, तो वह जमानत नहीं देता। इससे कम सजा के प्रावधान वाले मामले में मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की न्यायालय में मामले की संगीनता के हिसाब से जमानत दी जा सकती है।

सेशन कोर्ट किसी भी मामले में जमानत की अर्जी स्वीकार कर सकता है। यदि मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की न्यायालयमें अगर उम्रकैद या फांसी की सजा के प्रावधान वाले मामले में जमानत की अर्जी लगाई गई हो, तब भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा-437 के अपवाद का सहारा लिया जाए, तो उस आधार पर भी जमानत मिल सकती है, इस प्रकार की याचिका कोई महिला या शारीरिक या मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति ही लगा सकता है। हालांकि इसमें भी अंतिम निर्णय न्यायालय का ही होता है। यहां गौर करने वाली बात यह है, कि सेशन कोर्ट किसी भी गंभीर मामले में जमानत दे सकता है, लेकिन न्यायालय का निर्णय मामले की संगीनता पर निर्भर करता है।
 


भारत में जमानत के प्रकार

भारत में आमतौर पर तीन प्रकार से जमानत दी जाती है, जो एक व्यक्ति आपराधिक मामले के आधार पर आवेदन कर सकता है।

नियमित जमानत (रेगुलर बेल)
रेगुलर बेल एक ऐसी जमानत है, जिसे गिरफ्तारी के बाद न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को दी जाती है। जब कोई भी व्यक्ति संज्ञेय और गैर - जमानती अपराध करता है, तो पुलिस उसे अपनी हिरासत में ले लेती है। पुलिस हिरासत की अवधि की समाप्ति के बाद, आरोपी को जेल भेजना होता है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 437 और 439 के तहत, ऐसे आरोपियों को हिरासत से रिहा करने का अधिकार है। इसलिए हम कह सकते हैं, कि नियमित जमानत मुकदमे में अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए हिरासत से अभियुक्त की रिहाई का एक प्रावधान है।

अंतरिम जमानत (इंटरिम बेल)
अंतरिम जमानत में थोड़े समय के लिए जमानत दी जाती है। नियमित जमानत या अग्रिम जमानत के लिए सुनवाई से पहले एक अभियुक्त को अंतरिम जमानत दी जा सकती है।
यदि किसी मामले में एंटीसिपेटरी बेल के लिए आवेदन किया गया है, लेकिन पुलिस को मामले की जांच करने की आवश्यकता है, और न्यायालय को लगता है कि जांच जल्द ही पूर्ण नहीं की जा सकती है, तो न्यायालय आपको अंतरिम जमानत पर रिहा कर सकती है। इसमें मूल रूप से आपको संरक्षण दिया जाता है, और अगले आदेश तक गिरफ्तारी न करने के लिए अभियोजन पक्ष को निर्देश भी दिया जाता है। नियमित जमानत में अंतरिम जमानत की भी अनुमति दी जा सकती है, हालाँकि इसकी संभावनाएँ कम होती हैं। अंतरिम जमानत पाने के लिए आपके पास मौत या शादी जैसे बहुत मजबूत कारण होने चाहिए।

अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल)
जब कोई व्यक्ति किसी अपराध में गिरफ्तार होने वाला हो, या उसे इस बार का डर हो की उसे किसी ऐसे केस में फसा कर जेल में बंद किया जा सकता है, जो कि उसने किया ही नहीं है, तो ऐसे में जेल जाने से बचने के लिए वह न्यायालय से गिरफ्तार होने से पहले ही भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। जब न्यायालय उस आवेदन को स्वीकृति दे देती है, तो न्यायालय के आदेशानुसार पुलिस उस व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं करती है, न्यायालय द्वारा जमानत का ये आदेश अग्रिम जमानत (एंटीसिपेटरी बेल) कहलाता है।
 


भारत में जमानत के लिए आवेदन कैसे करें?

जमानत के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया उस स्तिथि पर निर्भर करती है, जिस पर आपराधिक मामला बना हुआ है। ऐसे मामले में, यदि व्यक्ति को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है, लेकिन इस बात का डर है, कि पुलिस द्वारा उसे जल्द ही गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वह व्यक्ति अग्रिम जमानत का आवेदन दायर करने के लिए भारत में एक आपराधिक बचाव के वकील को नियुक्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्ति को यह आशंका है, कि उसकी पत्नी उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 'ए' का झूठा मामला दर्ज करती है, तो वह पुलिस में अपनी पत्नी के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से पहले अग्रिम जमानत प्राप्त कर सकता है।

यदि पुलिस पहले ही उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर थाने ले गई है, तो जमानत के लिए वकील भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में दिए गए जमानत आवेदन के प्रारूप के अनुसार जमानत दायर कर सकता है। जमानत की अर्जी न्यायालय में फाइल होने के बाद अनुमोदित की जानी चाहिए, और फिर गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को जेल से बाहर लाने के लिए पुलिस के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए।

जमानत राशि का निर्धारण या जमानत राशि जमा करना अदालत के विवेक पर निर्भर करता है। हालांकि, कम गंभीर आपराधिक मामलों में जमानत के लिए एक मानकीकृत जमानत राशि निर्धारित और जमा की जाती है।
 


बेल या जमानत मिलने की शर्तें

ज़मानत पर जेल से बाहर होने का मतलब है, कि आप स्वतंत्र तो हैं, पर आप न्यायालय द्वारा कई प्रकार की बंदिशों से भी घिरे होते हैं, ये बंदिशे बेल बॉण्ड से अलग होती हैं, उदाहरण के लिए आप रिहा होने के बाद शिकायत कर्ता को परेशान नहीं करेंगे, किसी भी प्रकार के गवाह या सबूत को प्रभावित नही करेंगे।

इसके अलावा न्यायालय आप पर अपना देश छोड़कर विदेश जाने के लिए भी बंदिश लगा सकती है, तथा आप का उसी शहर में रहना या किसी निश्चित एरिया में रहना तय कर सकती है, या आप का किसी निश्चित दिन या फिर हर रोज पुलिस स्टेशन में आकर हाजरी लगवाना भी निश्चित कर सकती है।

ऐसा न करते पाए जाने पर न्यायालय द्वारा आपकी बेल या जमानत को रद्द भी किया जा सकता है, ज्यादातर मामलो में ऐसा देखा जाता है, की शिकायत कर्ता कोर्ट में झूठी शिकायत दे देते हैं, कि आरोपी बेल या जमानत लेकर उसका दुरूपयोग कर रहा है, या कहीं विदेश जाने की तैयारी कर रहा है, या गवाहों को और किसी भी प्रकार के सबूतों को धमका रहा है, जिससे की आरोपी की जमानत रद्द हो जाये। तो ऐसे में आप को इन सभी बातों से भी सतर्क व सावधान रहना चाहिए।





ये गाइड कानूनी सलाह नहीं हैं, न ही एक वकील के लिए एक विकल्प
ये लेख सामान्य गाइड के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रदान किए जाते हैं। हालांकि हम यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते हैं कि ये मार्गदर्शिका उपयोगी हैं, हम कोई गारंटी नहीं देते हैं कि वे आपकी स्थिति के लिए सटीक या उपयुक्त हैं, या उनके उपयोग के कारण होने वाले किसी नुकसान के लिए कोई ज़िम्मेदारी लेते हैं। पहले अनुभवी कानूनी सलाह के बिना यहां प्रदान की गई जानकारी पर भरोसा न करें। यदि संदेह है, तो कृपया हमेशा एक वकील से परामर्श लें।

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